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सियासी रथ रोकने वाले ‘मुक्तिपथ’ पर ही मिली हरिशंकर को ‘मुक्ति’!

By Shakti Prakash Shrivastva on May 17, 2023
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शक्ति प्रकाश श्रीवास्तव

                विधि का विधान कोई नहीं जानता। सच मानिए तो घटना के घटित होने के बाद ही उसका विश्लेषण हो पाता है। पूर्वाञ्चल के नामचीन बाहुबली पंडित हरिशंकर तिवारी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उन्होंने बुलेट और बैलेट के साम्राज्य का अपने जीवन पर्यंत उपभोग किया। लेकिन उन्होंने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि बड़हलगंज स्थित जिस मानव काया के अंतिम पड़ावस्थली यानि मुक्तिपथ की वजह से उनके अजेय सियासी रथ का घोडा रुका या रोका गया आज जीवन की अंतिम यात्रा के बाद चिरनिद्रा भी उसी की गोद में जाकर मिलेगी। लेकिन इसी को कहते हैं नियति का चक्र। कब, कहाँ, कैसे और किसके लिए घूमेगा इसका चक्र, किसी को पूर्वानुमान नहीं होने देता। निःसंदेह पूर्वाञ्चल का नाम आपराधिक गतिविधियों के लिए देश ही नहीं दुनिया में चर्चित कराने के लिए बाहुबली पंडित हरिशंकर तिवारी का नाम लिया जाता है लेकिन सियासत में भी लगातार छः बार विधायक और अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारों में पाँच बार मंत्री बनकर माननीय होने का भी तमगा उन्ही के नाम शुमार है। जिद्दी स्वभाव वाले हरिशंकर, माफिया सरगना का तमगा लगने के बाद भी अपनी जिंदगी किसी दूसरे के निशाने से नहीं बल्कि अपने नैसर्गिक मौत को गले लगाते हुए उसके हवाले किया। गोरखपुर में धर्मशाला स्थित ‘तिवारी हाता’ में मंगलवार की शाम नब्बे वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके निधन से पूर्वाञ्चल के कुख्यात कहे या विख्यात एक नामचीन शख्सियत का अंत हो गया।

अपराध जगत में राबिनहुड़ सरीखी छवि बनाने वाले पंडित हरिशंकर तिवारी पहले शख्स थे जिनके लिए माफिया शब्द प्रयोग किया गया। बाहुबल की बदौलत सियासत में पदार्पण करने वाले भी तिवारी देश में संभवतः पहले नेता थे। माना जाता है कि इन्ही के आने के बाद देश में बाहुबलियों का सियासत में आगमन शुरू हुआ। श्री तिवारी पहले ऐसे बाहुबली नेता थे जो जेल में बंद रहते हुए न केवल विधानसभा चुनाव लड़े बल्कि जीते भी। समय था 1985 का। इसके बाद सियासत में बाईस सालों तक कोई पंडित तिवारी को चुनौती देने वाला नहीं रहा। पहले निर्दल फिर अन्य दलों से चुनाव लड़ते हुए हरिशंकर तिवारी गोरखपुर के दक्षिणाञ्चल के चिल्लूपार विधानसभा से लगातार विधायक चुने जाते रहे। इस दौरान चाहे कांग्रेस, बीजेपी, सपा, बसपा किसी की भी प्रदेश में सरकार हो सबमें श्री तिवारी मंत्री रहते थे। कल्याण सिंह से लगायत रामप्रकाश गुप्त, राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह यादव, मायावती। यहाँ तक कि एक दिन वाली जगदंबिका पाल वाली सरकार में भी इनका नाम था। लेकिन 2007 का भी समय आया। विधानसभा चुनाव में इलाके के एक युवा पत्रकार राजेश त्रिपाठी ने बसपा से इनको न केवल चुनौती दी बल्कि पराजित भी किया। हालांकि यहाँ राजेश की चुनौती व्यक्तिगत महज प्रत्याशी के रूप में थी। असली चुनौती राजेश द्वारा इलाके में मानव काया के अंतिम पड़ाव स्थली के रूप में मुक्तिपथ निर्माण सरीखे लोकप्रिय मुहिम की तरफ से पेश की गई थी। सियासत में सिद्ध तिवारी को यहाँ समझने में चूक हो गई। वो मुक्तिपथ पर उमड़ रहे जनास्था विश्वास और उसके सर्जनहार राजेश में भेद नहीं कर पाए। लिहाजा धोखा हो गया। लेकिन विधि की ऐसी व्यवस्था कि इलाकाइयों की बातों पर यकीन करें तो 2007 के बाद से जिस मुक्तिपथ पर श्री तिवारी जाने से परहेज करते रहे उसी मुक्तिपथ पर उनकी अंतिम यात्रा को विराम के लिए चुना गया। इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य के जीवन में वही होना है जो परमसत्ता चाहेगी। सियासत तो समाज की व्यवस्था का मानवीय प्रयोग मात्र है।

 

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