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योगी ही बनेंगे खेवनहार !

By Shakti Prakash Shrivastva on September 17, 2023
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शक्ति प्रकाश श्रीवास्तव

                   देश में सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन हो या विपक्षी पार्टियों का नवगठित गठबंधन आईएनडीआईए दोनों ही इन दिनों आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपने-अपने सियासी बिसात बिछाने में जुटे हुए हैं। उत्तर प्रदेश सहित देश के छः राज्यों में पिछले दिनों हुए सात विधानसभा के उपचुनावों में जिस तरह परिणाम आए हैं उसने एनडीए घटक दलों खासकर बीजेपी की पेशानी पर बल ला दिया है। उसमें भी देश की लोकसभा को सबसे अधिक अस्सी सांसद देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश की घोसी विधानसभा के उपचुनाव परिणाम में सपा को जीत मिली तो सपा का उत्साहित होना तो लाजिमी था लेकिन प्रदेश के रास्ते देश की सत्ता पर हेट्रिक लगाने का ख्वाब पालने वाले बीजेपी को दिन में तारे दिखने जैसा लगा। इस चुनाव में भले ही बीजेपी को शिकस्त मिली लेकिन यहाँ हार की वजहों में सपा की अच्छाई से अधिक बीजेपी की अपनी कमियाँ जिम्मेदार रहीं। इसमें यह प्रमाणित हो गया कि बीजेपी को जातीय नेताओं को खासा तवज्जो देना बीजेपी के मतदाताओं को रास नहीं आया। यही वजह है कि सुभासपा सुप्रीमो ओम प्रकाश राजभर, निषाद पार्टी के प्रमुख डॉ संजय निषाद और सीटींग विधायक दारा सिंह चौहान सरीखे जातीय सियासत के अलंबरदारों की मौजूदगी में अपेक्षा के काफी विपरीत आंकड़ों वाली हार हुई।

हालांकि बीजेपी की सरकारों ने प्रदेश ही नहीं देश में सिर्फ दलित और पिछड़ी जाति के नेताओं को अहमियत देने की बजाय हर वंचित समाज की जनता को सरकार की योजनाओं का भरपूर लाभ दिया है। यही वजह है कि पार्टी लगातार दो बार से राज्य और केंद्र की सत्ता पर काबिज भी है। पार्टी का सियासी टैगलाइन भी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास ही है। बीजेपी को जब लगभग चार दशक बाद यूपी में रिकार्ड तोड़ बहुमत के साथ सत्ता में वापसी का अवसर मिला और पिछड़ा वर्ग के बड़े भाजपाई नेता और सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे केशव मौर्य जैसे बिरादरी के कद्दावर नेता को हार का मुंह देखना पड़ा, तो उससे उसे सबक लेना चाहिए था। लेकिन गलती के दुहराव की वजह से ही घोसी में स्थानीय जातीय समीकरणों के लिहाज से सर्वाधिक मुफीद पार्टी उम्मीदवार माने जा रहे दारा सिंह चौहान को हार का सामना करना पड़ा। दारा सिंह ही नहीं यहाँ के मतदाताओं ने निषादों के रहनुमा डॉ संजय और राजभर मतदाताओं के पसंदीदा ओपी राजभर की भी जातीय सियासत पर मुहर लगाने की बजाय उसे खारिज कर दिया। पार्टी आलाकमान को इस परिणाम के निहितार्थ को बहुत गंभीरता से समझना होगा। क्योंकि लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहा है। अब इलाकाई सियासत के जानकार भी मानने लगे हैं कि यही घोसी का चुनाव यदि सिर्फ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हिंदुवादी चेहरे, उनके सरकार के भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस की नीति, अपराध और अपराधियों पर प्रभावी नकेल और विकास सरीखे मुद्दों को आगे करके लड़ा गया होता तो परिणाम ये कत्तई न होता जो हुआ है। क्योंकि इस परिणाम ने ये तो जता ही दिया है कि इन जातीय नेताओं से उनके ही जातीय लोगों का भरोसा उठ गया है। चुनाव के दौरान जातीय अतिवादिता वाले बयानों की वजह से बीजेपी के कट्टर सवर्ण समर्थकों में भी निराशा हुई है। उन्होने भी कमोबेश बीजेपी से इस चुनाव में दूरी बनाई है।

ऐसे में जबकि हालिया परिणामों ने एनडीए गठबंधन की कमजोरी उजागर कर दी है। सियासत के इलाकाई जानकारों का ऐसा मानना है कि बीजेपी का प्रांतीय नेतृत्व प्रदेश में आईएनडीआईए गठबंधन को पछाड़ते हुए अपना पुराना प्रदर्शन दुहराने में पूरी तरह सक्षम है। लिहाजा केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि दंगामुक्त हो चुके इस प्रदेश की सरकार और देशभर में लोकप्रियता का अलग रिकार्ड रखने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दलित-पिछड़ा-सवर्ण सभी में स्वीकार्य जमीनी छवि को पहचाने और इसी आधार पर सियासत की रणनीति को धार दें। क्योंकि आज से एक दशक के पहले की तस्वीर अलग थी तब समाज की सियासत पूरी तरह दलित, पिछड़ा, सवर्ण जैसे खांचे में सिकुड़ी हुई बीएसपी और सपा जैसी जातीय आधारित सियासी पार्टियों से नियंत्रित था। तब अमित शाह जैसे सियासी चाणक्य को प्रदेश में कैंप करते हुए इसके लिए सियासी बिसात बिछानी पड़ी थी। ऐसा कर उन्होने पार्टी के प्रति सवणों की पार्टी रूपी मतदाताओं की धारणा को बदला था। लेकिन अब प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने और अपने सरकार की कार्यशैली से समाज के पिछड़े-दलित-सवर्ण सहित सभी तबकों में अपनी बखूबी स्वीकार्यता हासिल कर ली है। भले ही पार्टी और उसके गठबंधन एनडीए की मौजूदा स्थिति प्रदेश में अपेक्षाकृत कमजोर हुई है लेकिन योगी आदित्यनाथ की छवि और मतदाताओं में उनके आकर्षण में कोई कमी नहीं आई है। लिहाजा जानकार तो यही मानते हैं कि बीजेपी के लिए योगी की ईमानदार हिंदूवादी छवि, विकास माडल और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दे को आगे कर यदि लोकसभा चुनाव लड़ा गया तो पार्टी के लिए बेहतर परिणाम मिल सकता है।

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